गजवा-ए-हिंद’ का सपना और महबूब आलम की गिरफ्तारी


नई दिल्ली (आपकासमाचार) 
 राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने हाल ही में पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) के बिहार प्रदेशाध्यक्ष महबूब आलम की गिरफ्तारी की है। इसे उस गहरी साजिश के तहत पकड़ा गया है जो भारत को भीतर से तोड़ने के लिए वर्षों से बुनी जा रही थी। वस्‍तुत: महबूब आलम, कटिहार जिले का निवासी, उन 26 आरोपितों में से एक है जिन पर 2022 में फुलवारीशरीफ में दर्ज आपराधिक आतंकी साजिश का आरोप है। वह इस मामले में गिरफ्तार किए गए 19वें व्यक्ति के रूप में एनआईए के हत्थे चढ़ा। उसका काम था संगठन के कैडरों तक विदेशी फंड पहुंचाना, युवाओं को कट्टरपंथ की राह पर लगाना और उस नेटवर्क को मजबूत करना जिसका लक्ष्य था भारत को वर्ष 2047 तक इस्लामी राष्ट्र बना देना।


यहां यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या यह केवल एक संगठन की हद तक सीमित है या फिर इसके पीछे कहीं अधिक गहरी, संगठित और अंतरराष्ट्रीय स्तर की योजना काम कर रही है? क्‍योंकि जुलाई 2022 में फुलवारीशरीफ से बरामद आठ पन्नों का दस्तावेज ‘इंडिया विजन 2047’ इस सवाल का उत्तर देता है। यह दस्तावेज भारत की संप्रभुता को समाप्त कर इस्लामी शासन स्थापित करने का खाका था। इसमें साफ लिखा मिलता है कि यदि केवल दस प्रतिशत मुस्लिम आबादी भी साथ आ जाए तो बहुसंख्यक समाज को दबाकर सत्‍ता पर कब्जा किया जा सकता है।

इस साक्ष्‍य में चार चरणों का उल्लेख किया गया मिला है। पहला, युवाओं को संगठन से जोड़कर कट्टरपंथ की ओर मोड़ना। दूसरा, उन्हें हथियार चलाने और मार्शल आर्ट्स का प्रशिक्षण देना। तीसरा, पुलिस, सेना और न्यायपालिका जैसी संस्थाओं में अपने वफादार स्थापित करना और चौथा, विदेशी सहयोग से सीधे संघर्ष में उतरना। इस दस्तावेज में प्रधानमंत्री पर हमला करने की योजना बनाने और उसे कैसे अंजाम देना है, इस तक दर्ज मिला।

यहां हो सकता है किसी को लगे कि लेखक ये क्‍या बेकार की बातें लिख रहा है, यह तो कल्पनालोक है, किंतु यदि कोई ऐसा सोच रहा है तो वह हकीकत को स्‍वीकारना नहीं चाहता, यही कहना होगा। वस्‍तुत: यह कोई सामान्‍य घटना नहीं, बल्कि गंभीर राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला है। पीएफआई लंबे समय से सुरक्षा एजेंसियों की निगरानी में था। शुरुआत में उसने खुद को सामाजिक-शैक्षिक संगठन के रूप में प्रस्तुत किया ताकि उसकी गतिविधियों पर संदेह न हो। परंतु धीरे-धीरे इसकी असली तस्वीर सामने आती गई। 2022 में एनआईए और ईडी द्वारा 17 राज्यों में की गई छापेमारी ने इस संगठन का असली चेहरा उजागर कर दिया। इन छापों में हथियार प्रशिक्षण मॉड्यूल, बम बनाने के मैनुअल और हिट लिस्ट बरामद हुईं। इसके बाद ही सरकार ने पीएफआई और उससे जुड़े आठ संगठनों पर पाँच साल का प्रतिबंध लगाया। इसमें ऑल इंडिया इमाम्स काउंसिल, कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया और रहाब इंडिया फाउंडेशन जैसे संगठन शामिल हैं।

महबूब आलम की गिरफ्तारी से जो बातें सामने आईं, वे बताती हैं कि उसका काम केवल स्थानीय स्तर तक सीमित नहीं था। वह गल्फ देशों से हवाला के जरिए आने वाले धन को नेटवर्क तक पहुंचाने में सक्रिय था। यह धन युवाओं की भर्ती, उन्हें ट्रेनिंग देने और प्रोपेगेंडा चलाने में खर्च होता था। ‘इंडिया विजन 2047’ दस्तावेज में तुर्किये का विशेष उल्लेख था कि संघर्ष की स्थिति में वह भारतीय मुस्लिमों की मदद करेगा। इसका सीधा अर्थ है कि यह केवल भारत के भीतर की समस्या नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय जिहादी नेटवर्क का हिस्सा है।

‘गजवा-ए-हिंद’ की विचारधारा इसी नेटवर्क का ईंधन है। इस अवधारणा का अर्थ है, भारत की धरती पर इस्लामी शासन की स्थापना। पाकिस्तान, अफगानिस्तान और मध्य एशिया के कट्टरपंथी गुट इस विचार को वर्षों से बढ़ावा देते आए हैं। आईएसआईएस और अल-कायदा ने भी इसका इस्तेमाल भारतीय युवाओं को बरगलाने के लिए किया। सोशल मीडिया पर हजारों संदेश फैलाए गए, जिनमें भारत को ‘अगला युद्धक्षेत्र’ बताया गया। महबूब आलम और उसके जैसे लोग इसी विचारधारा के वाहक हैं।

यहां यह देखना आवश्यक है कि यह नेटवर्क कितना व्यापक था। बिहार में महबूब आलम और सज्जाद आलम, केरल में मुहम्मद मुबारक, महाराष्ट्र में डॉ. अदनान अली सरकार और तमिलनाडु में मुहम्मद अखलथुर जैसे नाम सामने आए। कहीं हिट लिस्ट तैयार की जा रही थी, कहीं युवाओं को हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी जा रही थी, तो कहीं विदेशी फंडिंग और प्रचार-प्रसार का काम हो रहा था। एक तरह से देखा जाए तो यह पूरे देश को जकड़ने की साजिश थी।

आंकड़े बताते हैं कि खतरा कितना गंभीर है। 2014 से 2021 तक आईएसआईएस से जुड़े 37 मामले दर्ज हुए हैं और 168 लोग गिरफ्तार हुए। 500 से अधिक समर्थक पकड़े गए, जो प्रोपेगेंडा फैला रहे थे। केवल फुलवारीशरीफ केस में ही जैसा बताया गया कि छब्‍बीस आरोपितों पर चार्जशीट दायर हुई । 2022 की छापेमारी में 100 से अधिक पीएफआई कार्यकर्ता पकड़े गए। यह कोई छिटपुट घटना नहीं, एक व्यापक पैटर्न के रूप में दिखाई दिया है।

आज चिंता यह है कि भारत का लोकतंत्र विविधता और सहिष्णुता पर टिका है। लेकिन जब कोई संगठन युवाओं को यह विश्वास दिलाता है कि उनकी अस्मिता केवल इस्लामी शासन से सुरक्षित रह सकती है, तो यह केवल संविधान पर हमला नहीं करता, बल्कि करोड़ों भारतीय मुसलमानों को भी कठघरे में खड़ा कर देता है जो शांति और प्रगति में विश्वास रखते हैं। यह स्थिति खतरनाक है क्योंकि इससे सामाजिक ताने-बाने में दरार पड़ती है।

अब इस मामले में भले ही सरकार और सुरक्षा एजेंसियों ने समय रहते कठोर कार्रवाई की, परंतु ध्‍यान में आता है कि सिर्फ प्रतिबंध लगाना पर्याप्त नहीं है। फंडिंग के स्रोतों पर कड़ी निगरानी, साइबर स्पेस पर नजर, और युवाओं को सकारात्मक दिशा देना अनिवार्य है। स्थानीय स्तर पर इस्‍लामिक मजहबी नेताओं और शिक्षाविदों को भी चाहिए कि वे सुधार के लिए आगे आएं ताकि कट्टरपंथी विचारधाराओं का प्रतिकार हो सके।

महबूब आलम की गिरफ्तारी से यह स्पष्ट है कि लोकतंत्र के सामने सबसे बड़ी चुनौती बाहरी नहीं, बल्कि भीतर से पनप रही वैचारिक घुसपैठ है। यह केवल कानून-व्यवस्था का मामला नहीं है, इससे भी कहीं आगे की राष्ट्रीय अस्मिता की लड़ाई है। ‘गजवा-ए-हिंद’ का सपना देखने वाले यह भूल जाते हैं कि भारत केवल एक भू-राजनीतिक इकाई नहीं, बल्कि साझा संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक है। इस चेतना को न तो हथियारों से दबाया जा सकता है और न ही हिंसा से नष्ट किया जा सकता है।

आज आवश्यकता है सामूहिक सतर्कता की। नागरिकों के जागरूकता की । सच यही है कि भारत की ताकत उसकी विविधता और लोकतांत्रिक व्यवस्था में है। इसे बचाए रखना हर नागरिक की जिम्मेदारी है। महबूब आलम की गिरफ्तारी हमारे लिए एक चेतावनी है कि यदि हम सचेत नहीं हुए तो 2047 का सपना केवल विकास और प्रगति का नहीं, बल्कि वैचारिक संघर्ष का भी हो सकता है। इसलिए आज ही यह निश्चय करना होगा कि भारत किस राह पर जाएगा! कट्टरपंथ और हिंसा की ओर या सहिष्णुता और समृद्धि की ओर?

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